सपने……….
जीत लूँगी ये जमीन
–आसमान
इससे कम में कैसे मानूंगी |
बचपन से खिलौनों
में छुपाकर
मीठी बातो की
चाशनी में डुबाकर
किताबो के बस्तों के बीच
बाँध दिए थे माँ -
बाप ने जो सपने
वो संभाले नहीं
संभलते हैं
सोते- जागते आँखों
में चुभते हैं |
छोटी चीजो से दिल
ही नहीं भरता
सीधी-सादी लड़ाई लड़कर कोई मज़ा नहीं आता |
कुछ ऐसा हो
आड़ा-तिरछा-टेढ़ा
हो
असंभव हो
विशाल हो
ऐसा कुछ करू जो
सबको याद रहे |
मेरी जय-जयकार रहे |
मेरे जीते जी
...और मेरे जाने के बाद ऐसा ही कर गुजरना
चाहती हूं
किसी भी हालत में
अपने लिए एक मुकम्मल पहचान बनाना चाहती हूं
घुड -दौड़ जारी है
महत्वाकांक्षा की
सवारी है
शायद एक दिन वो
मुकम्मल जहान मिल भी जाए |
हर अजनबी को मेरा
नाम और पाता याद भी रह जाए
पर क्या वो कुल
जमा हासिल... वो खुशियाँ दे पायेगा
जो स्कूल में छुट्टी की घंटी बजने पर मिलती था |
घर से भागकर आवारगी में राम-लीला देखने पर मिलता था
खेत में मीलो
दौड़कर एक कटी पतंग लूटकर मिलता था
भूत-महल के पेड़
से आम चुराकर मिलता
था
पापा के दस्तखत
नक़ल कर शिक्षक को छकाने में मिलता था
छोटी छोटी खुशियाँ
और बेपरवाह ज़िन्दगी ने जितना मज़ा दिया है
वो इन बड़ी
सफलताओं ने क्यों नहीं दिया ???
क्योकि शायद तब
ज़िन्दगी फूलों का एक बाग़ थी
आज शतरंज की बिसात है
तब हमारी 'हंसी' में ज़िन्दगी की खनक थी
आज हर 'हंसी' एक
सोची समझी चाल है |
शायद तब सपने मेरे
नकली थे |
superb. Chaa gyi :)
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