Friday 20 July 2012



 आवारा  तितली 



अपने दिल की सुनती
अपने मन की करती
सारे अनुमानों को

झूठा साबित करती

चलती उन राहों पर

जो कभी न सोची थी

दिल है  आवारा  तितली

एक बाग़, एक देश

एक नदी एक भेष

सबसे उठ पार चली

पिछला सब हार चली

बन उठी है निर्मोही

दिल है आवारा  तितली
नेह का पराग पी
फूलो का प्यार जी
डालियों पे झूल झूल
इधर -उधर कुदक- फुदक
थक कर सुस्ता लेती
फिर अपने पंख सजा
गाती कोई गीत नया
अनजानी राहों पर
मुस्काकर चल देती
दिल है आवारा  तितली
पंखो में नभ की ललक
मन में है नयी पुलक
आँखों में नयी झलक
उडती फिरू वन उपवन
देती सन्देश सुगम
एक डाल एक फूल
सुंदर पा मत ये भूल
नित नए सहस्र गेह
करती अटखेलियाँ हैं
तन मन श्रृंगारित  कर
राह तेरा देख रही
मत रुक तू एक जगह
चलता चल चलता चल
सफ़र ही है तेरी नियति
दिल है आवारा तितली

Saturday 26 May 2012

 सपने……….

जीत लूँगी ये जमीन –आसमान
इससे कम में कैसे मानूंगी |
बचपन से खिलौनों में छुपाकर
मीठी बातो की चाशनी में डुबाकर
किताबो के बस्तों के बीच
बाँध दिए थे माँ - बाप ने जो सपने
वो संभाले नहीं संभलते हैं
सोते- जागते आँखों में चुभते हैं |
छोटी चीजो से दिल ही नहीं भरता
सीधी-सादी लड़ाई लड़कर  कोई मज़ा नहीं आता |
कुछ ऐसा हो
आड़ा-तिरछा-टेढ़ा हो
असंभव हो
विशाल हो
ऐसा कुछ करू जो सबको याद रहे |
मेरी जय-जयकार रहे | 
मेरे जीते जी ...और मेरे जाने के बाद  ऐसा ही कर गुजरना चाहती हूं
किसी भी हालत में अपने लिए एक मुकम्मल पहचान बनाना चाहती हूं
घुड -दौड़ जारी है
महत्वाकांक्षा की सवारी है
शायद एक दिन वो मुकम्मल जहान मिल भी जाए |
हर अजनबी को मेरा नाम और पाता याद भी रह जाए
पर क्या वो कुल जमा हासिल... वो खुशियाँ दे पायेगा
जो स्कूल में छुट्टी की घंटी बजने पर मिलती था  |
घर से  भागकर आवारगी में राम-लीला देखने पर मिलता था 
खेत में मीलो दौड़कर एक कटी पतंग लूटकर मिलता था
भूत-महल के पेड़ से आम चुराकर  मिलता था
पापा के दस्तखत नक़ल कर शिक्षक को छकाने में मिलता था 
छोटी छोटी खुशियाँ और बेपरवाह ज़िन्दगी ने जितना मज़ा दिया है
वो इन बड़ी सफलताओं ने क्यों नहीं दिया ???
क्योकि शायद तब ज़िन्दगी फूलों का एक बाग़ थी
आज शतरंज की बिसात है 
तब हमारी 'हंसी' में ज़िन्दगी की खनक थी
आज हर 'हंसी' एक सोची समझी चाल है |
शायद तब सपने मेरे नकली थे |

Monday 13 February 2012

दिल


बचपन के दुःख कितने अच्छे थे.
तब दिल नहीं खिलोने टुटा करते थे.
वो खुशियाँ भी जाने कैसी खुशियाँ थीं.
तितली पकड़ कर उछला करते थे.
छोटे थे तो मक्कारी और फरेब भी छोटे थे.
दाना डाल कर चिड़िया पकड़ा करते थे.
अपनी जान जाने का भी अहसास न था.
जलते शोलों की तरफ लपका करते थे.
अब एक आंसूं गिरे तो रुसवा कर देता है.
बचपन में तो जी भर कर रोया करते थे..