Monday 28 November 2011

बोलो न माँ

सबकी चिंता को अपना बना लेती हो

अबका दर्द समेट

खुद की आँखे भीगा लेती हो

पर

तुम अपनी चिंता कब करोगी माँ???
बोलो न माँ…

हमको दुःख बतलाने को कहती हो

खुद अपने आंसू छिपाती हो

पर

तुम अपना दर्द हमें कब बताओगी माँ???
बोलो न माँ…

सबके पसंद का खाना बनाती हो

खुद कुछ भी खा लेती हो

पर

अपनी पसंद का खाना कब बनाओगी माँ???
बोलो न माँ…

हमें मजबूत होना सिखाती हो

हमारी ज़रा-सी चोट पर खुद सिहर जाती हो

दौड़ कर उसमें मलहम लगाती हो

उसे फूंक-फूंक सहलाती हो

खुद को लग जाये तो यूँही कह टाल जाती हो…

पर

अपने जख्मों को कब सहलओगी,

उनमें मलहम कब लगाओगी माँ???
बोलो न माँ…

जब भी बाज़ार जाती हो

सबके लिए सामान लाती हो

अपना ही कुछ भूल जाती हो

पर

तुम अपने लिए कब खुद कुछ लोगी माँ???
बोलो न माँ…

बचपन से सच बोलना सिखाया हमें

खुद कई बार झूठी हंसीं हंस जाती हो

पर

तुम हमेशा खुल के कब खिल्खिलोगी माँ???
बोलो न माँ…

हमें प्यार से रहना सिखाती हो

खुद कई बार हमारी खुशियों के लिए लड़ जाती हो

पर

अपनी खुशियों के लिए हक़ कब जताओगी माँ???
बोलो न माँ…

आज वादा करो…

अब किसी की चिंता में आंसू नहीं बहाओगी…

अपनी पसंद बताओगी…

खुल के खिलाखिलाओगी…

खुद को मलहम लगाओगी…

अपनी खुशियों का हक़ जताओगी…

फ़िर अपनी आँखों में चमक ले आओगी….

वादा करती हो न माँ…
बोलो न माँ…

Wednesday 23 November 2011

मेरी अपनी हँसी

समंदर के किनारे, रेत की महल बनाते वक्त,
मुझे पता था लहर आयेगी ,और बहा ले जायेगी रेत
और कुछ भी नही बचेगा, कोई नमो निशान भी नही |
फिर भी डर नही था,इक जुनू था इसे पुरा करने का ,
सो शुरुआत की, पर शायद लहर का डर था सो रेत का पहाड़ बनाया |
और उसकी चोटी पर कुछ रेत के ढेर को आकार देने लगा |
पता था रेत से बनी दीवारे कमजोर होती हैं ,
फिर भी मजबूती देने की फजूल कोशिश की |
जब रेत इमारत की शकल लेने लगी , तो सोचा थोड़ा दूर से देखूं |
अभी थोडी दुरी …….और फिर एक लहर …
वही हुआ.. …जहाँ मैंने रेत का पहाड़ बनाया था …
वहां अब सपाट मैदान था एक वीरान मैदान |
और जाने क्यूँ उस मैदान में उस अधबने आकार को ढूंढ रहा था |
शायद मैं अकल’बंद’ था , तभी सब जानते हुए ,
इतनी महनत करने की सोचा , पर उस सोच पर गुस्सा आरहा था |
तभी एक हँसी सुनी ,ये मेरी ही हँसी थी ,
जाने कितने सपने टूटे थे इस रेत की ढेर की तरह |
कुछ अपने सपने कुछ अपनों के सपने ,समय की लहर में बह गए |
फिर वही हँसी , एक तेज़ हँसी और कुछ शोर |
सुबह का शोर, उस शोर में एक परिचित आवाज़ थी |
एक सुनी आवाज़ , ‘ उठो’ ‘चाय’ ‘न्यूज़ पेपर’ ‘सुबह आजतक’
आलस भिचे आँखे घड़ी पर नज़र डाली, ६ बजे थे सुबह के ,
सुबह का सपना , सचा सपना , अपना सपना, सपनो का सपना
अधूरा सपना , टुटा सपना , बिखरा सपना , और एक हँसी |
और एक नए दिन की शुरुआत, हँसी के साथ |
एक नई सुबह, एक नया सपना, एक नई लहर, एक नया सफर |
सब कुछ नया था बस एक चीज़ पुरानी थी -हँसी, मेरी अपनी हँसी |