कोई पहचाना सा चेहरा,
हमें भीड़ में दिखा था|
कोई मरासिम नहीं था,
बस थोड़ी दूर साथ चला था|
दूर वफ़ा के साहिल थे,
उसके हम कहाँ काबिल थे|
ना उम्मीद थी ना गिला था,
बस थोड़ी दूर साथ चला था|
हमने कुछ कहा भी नहीं,
उसने कुछ पुछा भी नहीं|
शायद वो सब जानता था,
इसलिए खामोश खड़ा था|
बस थोड़ी दूर साथ चला था…
कोई गम तो नहीं रुखसत का,
कोई सबब भी नहीं कुर्बत का|
बस मिल गयी थी लकीरें,
लकीरों में मिलना लिखा था|
बस थोड़ी दूर साथ चला था…
मुन्तजिर नहीं किसी आहट का,
कच्चा सा धागा है चाहत का|
मैं डूब गया हूँ वो भी ढला था|
बस थोड़ी दूर साथ चला था|
बेहतरीन कविता।
ReplyDelete