समंदर के किनारे, रेत की महल बनाते वक्त,
मुझे पता था लहर आयेगी ,और बहा ले जायेगी रेत
और कुछ भी नही बचेगा, कोई नमो निशान भी नही |
फिर भी डर नही था,इक जुनू था इसे पुरा करने का ,
सो शुरुआत की, पर शायद लहर का डर था सो रेत का पहाड़ बनाया |
और उसकी चोटी पर कुछ रेत के ढेर को आकार देने लगा |
पता था रेत से बनी दीवारे कमजोर होती हैं ,
फिर भी मजबूती देने की फजूल कोशिश की |
जब रेत इमारत की शकल लेने लगी , तो सोचा थोड़ा दूर से देखूं |
अभी थोडी दुरी …….और फिर एक लहर …
वही हुआ.. …जहाँ मैंने रेत का पहाड़ बनाया था …
वहां अब सपाट मैदान था एक वीरान मैदान |
और जाने क्यूँ उस मैदान में उस अधबने आकार को ढूंढ रहा था |
शायद मैं अकल’बंद’ था , तभी सब जानते हुए ,
इतनी महनत करने की सोचा , पर उस सोच पर गुस्सा आरहा था |
तभी एक हँसी सुनी ,ये मेरी ही हँसी थी ,
जाने कितने सपने टूटे थे इस रेत की ढेर की तरह |
कुछ अपने सपने कुछ अपनों के सपने ,समय की लहर में बह गए |
फिर वही हँसी , एक तेज़ हँसी और कुछ शोर |
सुबह का शोर, उस शोर में एक परिचित आवाज़ थी |
एक सुनी आवाज़ , ‘ उठो’ ‘चाय’ ‘न्यूज़ पेपर’ ‘सुबह आजतक’
आलस भिचे आँखे घड़ी पर नज़र डाली, ६ बजे थे सुबह के ,
सुबह का सपना , सचा सपना , अपना सपना, सपनो का सपना
अधूरा सपना , टुटा सपना , बिखरा सपना , और एक हँसी |
और एक नए दिन की शुरुआत, हँसी के साथ |
एक नई सुबह, एक नया सपना, एक नई लहर, एक नया सफर |
सब कुछ नया था बस एक चीज़ पुरानी थी -हँसी, मेरी अपनी हँसी |
इस सुन्दर प्रस्तुति के लिए बधाई स्वीकारें.
ReplyDeleteदीपा जी लिखती रहें। :)
ReplyDeleteबहुत सारी बधाइयाँ ......... बहुत ख़ूब लिखा है ............
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