Sunday, 4 December 2011

तेरा नाम

जब भी लिखना कुछ चाहा, सबसे पहले तेरा ही ख्याल आया…
“और क्या लिखूं तुझ पर?”

फ़िर यही सवाल आया…



लिखना जब भी चाहा कागज़ पर…

तो रुक गयी कलम वहीँ, जहाँ तेरा नाम आया

सोचा, लिख दें दिल पर…

तो बढ़ गयी धड़कन, जैसे ही रूह को तेरा ख्याल आया

लिखना तो आसमान पर भी चाहा…

पर लिख सकूँ तेर बारे में, ये सोच आसमाँ को भी छोटा पाया

लिख देते तेरा नाम इस ज़मीं पर…

पर मैला न हो जाए, इसलिए ज़मीं को बी ठुकराया

“हवाओं पर लिखना कैसा होग?”

पर छू जायेगा तू किसी और को, सोच कर दिल सिहर आया

हम तो चला देते पानी पर भी कलम…

पर बहकर कहीं दूर न चला जाए मुझसे?, सो, हाँथ वहां भी चल न पाया
चल…
लिख देते हैं तेरा नाम अपने दिल में… धड़कन में… रूह की परछाइयों में…

अपनी साँसों में… जिस्म में… अपनी अंगड़ाइयों में…

जिससे…

जब भी चाहूँ तुझे पाऊं खुद में ही समाया…

लोग देखकर पूछें मुझसे…

कि मैं हूँ या तेरी मोहब्बत का साया…

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