Thursday, 29 December 2011

स्वरूप

अजब है जीवन अजब है रूप
हर दिन नई सीख,नया ही स्वरूप
आज जो सोचा,वो था कुछ अलग
पर क्या था न कहने की चाह है अब।
हजारों सवालों का न कोई जवाब
हर जवाब में छुपा इक नया ही सवाल
बेचारियत पे इनकी है किसको रहम
खुद ही उठते गिरते लड़खड़ाते कदम
कभी चाहे उड़ना कभी बस मिटना
जीवन के रूपों की न बात कोई करना।
हैं पल में ये सुंदर तो पल में कुरूप
जीवन समझने की न चाह कभी रखना
हर दिन हर पल,हर साँस है नई
हर साँस में बदलता है जीवन का रूप।
है सभी का ये जीवन,फिर भी है क्यों अलग
हर शख़्स यहाँ रखता है,अनेकों स्वरूप।

Tuesday, 27 December 2011

उलझन

कभी सोचता है उलझनों में घिरा मन
क्या ठहर गया है वक्त ? नहीं,
वक्त वैसे ही भाग रहा है
कुछ ठहरा है तो वो है मन,
मन ही कर देता है कम
अपनी गति को
और करता है महसूस
ठहरे हुए वक्त को
उसे नज़र आती हैं सारी
जिज्ञासायें उसी वक्त में,सारी
निराशायें उसी वक्त में
पर ठहरा हुआ मन अचानक-
हो उठता है चंचल मृगशावक सा
और करता है पीछा उस वक्त का,
जो बीत गया है।
नहीं चल पाता जब वक्त के साथ
सोचता है तब उसका
ठहरा हुआ मन,कि ये ठहराव
वक़्त का नहीं
ये तो है सिर्फ़ मन की उलझन।

Tuesday, 20 December 2011

मेरा मन

 जब-जब भी दिल,है दुखा कभी
संग हमारे सदा तन्हाई ही रही
आँसू बहने को आतुर,रुक जाते हैं
न पोछेगा कोई,खुद ही सिमट जाते हैं
है मन यूं परेशां,व्यथा से भरा
लगे मुसीबतों का है तम सा घिरा
न कोई सहारा न उजली किरण
बेचैन दिल है,पीड़ित ये मन
है खुद को समझना व समझाना भी
न आएगा पास,कोई हमदम कभी
दुखा है दिल तो क्या हो गया
भूल कर इसे मुस्कुरा बेवजह
सब आएंगे तेरे पास फिर ज़रूर
ले-ले के अपने ग़मों का सुरूर
बन जाएंगे हम फिर सबके लिए
दुख-दर्द बाँटने का ज़रिया हुज़ूर…

Sunday, 4 December 2011

तेरा नाम

जब भी लिखना कुछ चाहा, सबसे पहले तेरा ही ख्याल आया…
“और क्या लिखूं तुझ पर?”

फ़िर यही सवाल आया…



लिखना जब भी चाहा कागज़ पर…

तो रुक गयी कलम वहीँ, जहाँ तेरा नाम आया

सोचा, लिख दें दिल पर…

तो बढ़ गयी धड़कन, जैसे ही रूह को तेरा ख्याल आया

लिखना तो आसमान पर भी चाहा…

पर लिख सकूँ तेर बारे में, ये सोच आसमाँ को भी छोटा पाया

लिख देते तेरा नाम इस ज़मीं पर…

पर मैला न हो जाए, इसलिए ज़मीं को बी ठुकराया

“हवाओं पर लिखना कैसा होग?”

पर छू जायेगा तू किसी और को, सोच कर दिल सिहर आया

हम तो चला देते पानी पर भी कलम…

पर बहकर कहीं दूर न चला जाए मुझसे?, सो, हाँथ वहां भी चल न पाया
चल…
लिख देते हैं तेरा नाम अपने दिल में… धड़कन में… रूह की परछाइयों में…

अपनी साँसों में… जिस्म में… अपनी अंगड़ाइयों में…

जिससे…

जब भी चाहूँ तुझे पाऊं खुद में ही समाया…

लोग देखकर पूछें मुझसे…

कि मैं हूँ या तेरी मोहब्बत का साया…